इसलिए हम आजाद हैं… सीरीज की चौथी स्टोरी…
10 फरवरी 1922 को गुजरात के बारडोली तालुका में महात्मा गांधी सुबह की प्रार्थना के बाद से ही चुपचाप कोने में बैठे थे। नेहरू जेल में थे और पटेल समेत बाकी कार्यकर्ताओं के बीच चर्चा का एक ही मुद्दा था- 4 फरवरी 1922 को UP में हुआ चौरी-चौरा कांड। ये वही कांड था जिसमें गुस्साई भीड़ ने 22 पुलिसवालों को जिंदा जला दिया था।
तब असहयोग आंदोलन चरम पर था और देशभर से भरपूर समर्थन मिल रहा था। गांधीजी अचानक उठे और उन्होंने इस आंदोलन को खत्म करने का प्रस्ताव रख दिया। कुछ कार्यकर्ता खामोश रहे, लेकिन ज्यादातर ने इससे साफ इनकार कर दिया। तब गांधीजी चुप हो गए, लेकिन दो दिन बाद यानी 12 फरवरी को असहयोग आंदोलन को वापस लेते हुए 5 दिन के उपवास पर चले गए।
दरअसल चौरी-चौरा शुरुआत से ही विवादों में रहा। जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया तब सुभाष चंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू, सीआर दास और रवींद्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों ने उनके इस फैसले की तीखी आलोचना की थी। अब 100 साल बाद चौरी-चौरा अपने शहीदों के स्मारक की वजह से विवादों में है।
तब विवाद क्या था और अब विवाद की वजह क्या है, इसे हम जानेंगे, लेकिन उससे पहले मैं आपको उस जगह लिए चलता हूं जहां चौरी-चौरा कांड हुआ था…
यही वो पुलिस स्टेशन है जहां 100 साल पहले 4 फरवरी 1922 को गुस्साई भीड़ ने 22 पुलिसवालों को जिंदा जला दिया था।
शहीद स्मारक और समाधि स्थल को बांटती हैं रेल की पटरियां
जब मैं गोरखपुर शहर से करीब 26 किलोमीटर दूर चौरी-चौरा पहुंचता हूं, तो वो पुलिस स्टेशन नजर आता है, जिसमें छुपे 22 पुलिसवालों को भीड़ ने जिंदा जला दिया था। 1857 में शुरू हुआ ये पुलिस स्टेशन आज किसी सामान्य थाने की तरह है। आंगन में जब्त गाड़ियां खड़ी हैं, फरियादियों का आना-जाना लगा हुआ है।
इसके पुराने हिस्से में आज भी उन पुलिसवालों का समाधि स्थल है, जिनकी मौत 100 साल पहले हुई थी। अंग्रेजों ने इसे 1924 में ही बनवा दिया था। इससे थोड़ी ही दूरी पर चौरी-चौरा के शहीदों का स्मारक बना है।
पुलिस वालों के समाधि स्थल और शहीद स्मारक को रेल की पटरियां बांटती हैं। ये वही पटरियां हैं, जहां पुलिस ने क्रांतिकारियों पर फायरिंग की थी और हिंसा भड़क गई। रेलवे इन पटरियों का आज भी इस्तेमाल कर रहा है।
दरअसल चौरी-चौरा दो अलग-अलग गांव थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ कर जनवरी 1885 में एक रेलवे स्टेशन शुरू किया। शुरुआत में सिर्फ रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था।
पटरियों के पार शहीद स्मारक की मीनार को घटना के करीब 51 साल बाद 1973 में गोरखपुर जिले के लोगों ने चंदा इकट्ठा करके बनाया था। 13,500 रुपए की लागत से 12.2 मीटर ऊंची मीनार बनाई गई थी। इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था। जिसे बाद में बदल दिया गया। चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति इसकी देखभाल करती है।
60 साल बाद इंदिरा सरकार को आई याद
अंग्रेजों ने 1924 में ही मारे गए पुलिसकर्मियों के लिए समाधि बना दी थी, लेकिन शहीदों के लिए 1982 में इंदिरा गांधी ने स्मारक बनवाया। इस स्मारक पर सभी 19 शहीदों के नाम लिखे गए हैं।
चौरी-चौरा कांड के 60 साल बाद, यानी 1982 में इंदिरा गांधी ने शहीदों का नया स्मारक बनवाया। स्मारक के बगल में चौरी-चौरा की घटना और स्वतंत्रता आंदोलन की जानकारी के लिए एक लाइब्रेरी और म्यूजियम भी बनाया गया। रेलवे ने 1990 में शहीदों के सम्मान में एक ट्रेन की शुरुआत की और नाम रखा-चौरी-चौरा एक्सप्रेस, जो गोरखपुर से कानपुर तक चलती है। 1993 में PM नरसिम्हा राव ने यहां म्यूजियम का उदघाटन किया था।
चौरी-चौरा में भीड़ के भड़क जाने के पीछे तीन अहम वजह मिलती हैं
1. मुंडेरा बाजार का मालिक संत बक्स: चौरी-चौरा की घटना से रीब 10-12 दिन पहले डुमरी के करीब 30 से 35 कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने मुंडेरा बाजार में धरना दिया। इस बाजार का मालिक था संत बक्स सिंह। संत बक्स के आदमियों ने वालंटियर्स को बाजार से खदेड़ दिया।
चौरी-चौरा की घटना से 5 दिन पहले, यानी 31 जनवरी को कार्यकर्ता 4,000 की भीड़ के साथ लौटे और इसी बाजार में बड़ी सभा हुई। 2 फरवरी को भगवान अहीर, नजर अली, लाल मुहम्मद सांई के साथ करीब 50 कार्यकर्ता फिर धरना देने बाजार पहुंचे तो संत बक्स के आदमियों ने उनके साथ मारपीट की। बाद में पुलिस ने भी भगवान अहीर और दो अन्य लोगों को थाने ले जाकर पीटा।
भगवान अहीर को थाने में पीटते अंग्रेज पुलिसकर्मी। भगवान प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना की तरफ से इराक में लड़ चुके थे। इस घटना को दैनिक भास्कर के आर्टिस्ट गौतम चक्रबर्ती ने इलस्ट्रेट किया है।
2. थानेदार गुप्तेश्वर सिंह: आरोप है कि गुप्तेश्वर सिंह ने संत बक्स सिंह के कहने पर ही भगवान अहीर के साथ मारपीट की थी। इसको लेकर लोगों में काफी गुस्सा था। 4 फरवरी 1922 को शनिवार का दिन था। मारपीट का विरोध करने के लिए मुंडेरी बाजार के पास करीब 800 लोग जमा हो गए। उधर गुप्तेश्वर सिंह ने गोरखपुर से और फोर्स बुला ली, जिनके पास बंदूकें भी थीं।
पुलिस की तरफ से भीड़ से बात करने के लिए संत बक्स सिंह के यहां काम करने वाला कर्मचारी अवधू तिवारी पहुंचा। उसे देखकर लोगों का गुस्सा और भड़क गया। दूसरी तरफ भीड़ भी बढ़ती ही जा रही थी। इसके बाद लोग थाने के सामने प्रदर्शन करने लगे। इसी बीच गुप्तेश्वर ने इस प्रदर्शन को गैरकानूनी घोषित कर दिया और कार्रवाई करने की धमकी दे डाली।
3. गांधी टोपी: प्रदर्शन को गैरकानूनी घोषित करते ही पुलिस और भीड़ के बीच झड़प शुरू हो गई। इसी दौरान एक सिपाही ने बड़ी गलती कर दी। उसने एक आंदोलनकारी की गांधी टोपी उतार ली उसे पैर से कुचलने लगा। यही वो पल था जब मामला हाथ से निकल गया और तोड़फोड़ शुरू हो गई। हिंसा देखकर गुप्तेश्वर के आदेश पर जुलूस में शामिल लोगों पर फायरिंग कर दी गई। इसमें 11 आंदोलनकारियों की मौत हो गई। करीब 50 घायल हो गए।
आर्टिस्ट गौतम चक्रबर्ती के इस इलस्ट्रेशन में अंग्रेज पुलिस का एक सिपाही गांधी टोपी को पैरों से कुचलता नजर आ रहा है। उसकी इस हरकत पर आंदोलनकारी भड़क उठे। पुलिस फायरिंग में 11 आंदोलनकारी की जान चली गई।
अंग्रेज सिपाहियों की गोलियां खत्म हो गईं, भागकर थाने में छुप गए
फायरिंग के बाद भीड़ पीछे हटी और रेल की पटरियों पर पहुंच गई। इसके बाद पत्थरबाजी शुरू हो गई। उधर फायरिंग करते-करते पुलिसवालों की गोलियां खत्म हो गईं। अब भीड़ ने पुलिसवालों पर धावा बोल दिया।
भीड़ से बचने के लिए 22 पुलिसवालों ने खुद को थाने के लॉकअप में बंद कर लिया। इसी बीच कुछ आंदोलनकारियों ने किसी दुकान से केरोसीन तेल का टिन उठा लिया। थाने पहुंचकर मूंज और घास-पतवार रखकर थाने में आग लगा दी। उधर दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने भागने की कोशिश की, तो भीड़ ने उसे भी पकड़कर आग में फेंक दिया।
पुलिसवाले जो हिंसा में जिंदा जल गए
सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह, रघुवीर सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, मंगरू चौबे, रामबली पाण्डेय, इन्द्रासन सिंह, रामलखन सिंह, मर्दाना खां, जगदेव सिंह और जगई सिंह।
उस दिन अपना वेतन लेने के लिए थाने पर आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग में फेंक दिया। कुल मिलाकर 23 पुलिसवाले जिंदा जलाकर मार दिए गए। हालांकि थाने के पास ही रह रहे गुप्तेश्वर सिंह की पत्नी और बच्चों को भीड़ ने हाथ भी नहीं लगाया।तस्वीर चौरी-चौरा स्टेशन की है। 29 जुलाई 1990 यहां से चौरीचौरा एक्सप्रेस ट्रेन चलाई गई थी। यह ट्रेन गोरखपुर से रोजाना इलाहाबाद (अब प्रयागराज) तक जाती थी। अब यह गोरखपुर से कानपुर अनवरगंज तक चल रही है।
225 लोगों पर मुकदमा, 19 को फांसी दी गई
इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और इलाके में मार्शल लॉ लागू कर दिया। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक इस भीड़ में 6,000 लोग थे। जिनमें से करीब 1,000 लोगों से पूछताछ की गई। 225 लोगों पर मुकदमा चलाया गया और गोरखपुर जिला कोर्ट में सुनवाई हुई। कांग्रेस कार्यकर्ता मीर शिकारी ही केस में सरकारी गवाह बने। सेशन जज एचई होम्स ने 9 जनवरी 1923 को अपना फैसला सुनाया। 172 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई।
गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने जज के इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की और मदन मोहन मालवीय ने ये केस लड़ा। हाईकोर्ट के दो जज सर ग्रिमउड पीयर्स और जस्टिस पीगॉट ने इस फैसले में 19 आरोपियों को फांसी की सजा बरकरार रखी। 16 लोगों को काला पानी भेजा गया और 38 लोगों को बरी कर दिया। 2 से 11 जुलाई 1923 को सभी 19 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया।
कौन थे वो 19 शहीद
विक्रम, दुदही, भगवान, अब्दुल्ला, काली चरण, लाल मुहम्मद, लौटी, मादेव, मेघू अली, नजर अली, रघुवीर, रामलगन, रामरूप, रूदाली, सहदेव, मोहन, संपत, श्याम सुंदर और सीताराम।
कपड़ों का बड़ा बाजार था मुंडेरी
चौरी-चौरा पर किताब लिखने वाले इतिहासकार केके पांडे बताते हैं कि जब ये घटना हुई उस दौरान ये इलाका कपड़ों का बड़ा मार्केट हुए करता था। कांग्रेस कार्यकर्ता स्वदेशी और खादी को बढ़ावा देने के लिए यहां हड़ताल करते थे। जिससे व्यापारियों का एक वर्ग भी नाराज था।
जब मैं मुंडेरी बाजार पहुंचता हूं तो यहां अब चौरी-चौरा हिंसा की कोई निशानी नजर नहीं आती। ये किसी छोटे कस्बे का एक सामान्य मार्केट है, जहां उस खूनी दिन की कोई याद नहीं बची है।
केके कहते हैं कि चौरी-चौरा के क्रांतिकारियों ने ‘करो या मरो’ का नारा देकर थाने पर हमला किया था। गांधी ने इसे हिंसा बताकर असहयोग आंदोलन रद्द कर दिया। 1942 में खुद गांधी ने जब फिर असहयोग आंदोलन चलाया तो ‘डू ऑर डाई’ का नारा दिया था। जलियांवाला बाग की घटना को सब याद करते हैं, लेकिन चौरी-चौरा को लेकर आज भी उपेक्षा का माहौल है।
संग्रहालय में आज भी सुरक्षित रखा है कोर्ट का फैसला
चौरी-चौरा शहीद स्मारक स्थल परिसर में ही शहीद संग्रहालय भी बनवाया गया है। जहां इस कांड के शहीदों की प्रतिमाएं लगी हुई हैं। यहां इस केस की FIR की कॉपी, पूरी चार्जशीट और कोर्ट का फैसला आज भी देखा जा सकता है। पास ही पर्यटन विभाग ने शहीदों के नाम ऑडिटोरियम भी बनवाया है। 4 फरवरी को हर साल यहां शहीदों की याद में कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।
अब ये भी जान लीजिए कि तब गांधी के फैसला का विरोध क्यों हुआ था…
गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापल ले लिया। गांधी का कहना था कि आंदोलन नहीं रोकते तो दूसरी जगहों पर ऐसी घटनाएं होतीं। आंदोलन वापसी के दिन को दैनिक भास्कर के आर्टिस्ट गौतम चक्रबर्ती ने इलस्ट्रेट किया है।गांधी फरवरी 1922 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करना चाहते थे। जिसका मकसद किसानों को लगान देने से रोकना था। इससे पहले ही चौरी-चौरा हो गया और यह आंदोलन शुरू नहीं हो सका।
हालांकि तब कई बड़ी हस्तियां गांधी के फैसले से असहमत थीं। नाराजगी जाहिर करते हुए सुभाष चंद्र बोस ने कहा था, ‘जब जनता का उत्साह अपने चरम पर हो, तब पीछे हटने का आदेश देना किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है।’
सीआर दास का कहना था कि असहयोग आंदोलन वापस लेना बड़ी गलती है। गांधी जी के इस फैसले से पॉलिटिकल वर्कर्स का मनोबल काफी हद तक गिरा है। मोतीलाल नेहरू भी गांधी के फैसले से खासा नाराज थे। यही वजह रही कि सीआर दास और मोतीलाल नेहरू ने जनवरी 2023 में स्वराज पार्टी की नींव रखी।