चेहरे पर पाउडर और होंठों पर गहरी लिपस्टिक- यही हमारा मेकअप है। सज-धजकर हम छज्जे पर खड़े रहते हैं। हमारा काम है, सड़क से गुजरते मर्दों को इशारे करना, उन्हें अपने पास बुलाना। इशारा जितना भद्दा, आने की गारंटी उतनी पक्की। इससे भी काम न बने तो हम सड़क पर उतर आते हैं। जिस किसी के भी पैर हमें देख जरा ठिठके, हम उसका हाथ पकड़कर ऊपर ले आते हैं।
अब अगले घंटेभर के लिए वो हमारा मेहमान है। फिर चाहे उसका मुंह शराब से भभकता हो, या फिर कोई अजीबोगरीब डिमांड आए- हमें उसकी बात माननी ही है।
गुलाबी नाइट-गाउन के साथ कानों में सुनहरे बूंदे पहने नीरजा अपना रुटीन बता रही हैं। छोटे-सुंदर चेहरे पर थकान से बोझल आंखें। आखिरी बार पूरी रात चैन से कब सोईं यह उन्हें याद नहीं। वो कहती हैं- लोग बिस्तर पर आराम के लिए आते हैं। बिस्तर यानी सुकून, लेकिन हमारे लिए यही हमारा ऑफिस है। यही हमारा पेशा है। बिस्तर की चादर उतनी बार नहीं बदलती, जितनी बार ग्राहक बदल जाते हैं। इस मैलेपन में नींद आए भी तो कैसे!
हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने मैरिटल रेप पर सुनवाई के दौरान कहा कि सेक्स वर्करों को भी न कहने का हक है, लेकिन पत्नियों के पास ये अधिकार नहीं। अदालत ने तो बात कह दी, लेकिन क्या वाकई सेक्स वर्कर्स के पास इतनी गुंजाइश होती है कि वे अपनी मर्जी से ग्राहक चुन सकें। इस बात को समझने के लिए हम दिल्ली के रेड लाइट एरिया पहुंचे, जीबी रोड! यहां 30 से ज्यादा कोठे हैं, जहां 2 हजार से ज्यादा सेक्स वर्कर काम करती हैं। पक्का डेटा किसी को मालूम नहीं।
यह दिल्ली का स्वामी श्रद्धानंद मार्ग रोड का साइन बोर्ड है। यहीं से होकर जीबी रोड में रहने वाली सेक्स वर्कर्स के घरों तक जाने का रास्ता है।
नीचे हार्डवेयर या बाथरूम फिटिंग्स की दुकानों के ऊपर डिब्बीनुमा कमरों में गोश्त का बाजार सजता है। अजमेरी गेट पहुंचते ही इन कमरों की महक नाक में भर जाती है। सीलन की गंध। सस्ते परफ्यूम की महक। शराब की बदबू और इससे भी ज्यादा अनकही तकलीफों की गंध, जो सालों से दड़बेनुमा घरों में अपने निकलने का रास्ता तलाश रही हैं।
अगर आप ग्राहक नहीं तो इन कमरों तक पहुंचना आसान नहीं। मैं एक NGO के मार्फत मिलने का समय डिस्कस करती हूं। सुबह मिलें? मेरे सवाल पर जवाब आता है- वहां सुबह का कोई पक्का टाइम नहीं, रातभर जागती हैं वे! फोन पार से आती आवाज मुझे जैसे नींद से जगाती है। जी बी रोड- यहां कोई पक्की सुबह नहीं।
दिमाग पर दुहत्थड़ (दोनों हाथ) चलाती गर्मी में जब हम अपने एसी कमरों में सोते हैं, यहां की लड़कियां सड़कों पर आकर ग्राहक खोजती हैं। कोई ऐसा, जिसकी ज्यादती के बदले वे अगले दिन की रोटी का बंदोबस्त कर सकें।
अजमेरी गेट पर दो लड़के मुझे लेने आए- एक करीब बीस साल का, दूसरा बमुश्किल दस का। हम पैदल आगे निकलते हैं। स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रोड-साइन उस तरफ इशारा कर रहा है, जहां हमें जाना है। मैं रुककर तस्वीर लेती हूं, इसी बीच कई आंखें मुझे घूरने लगती हैं। साथ आए बच्चों का बदलता चेहरा देख मैं तेजी से आगे निकलती हूं। उनमें से बड़ा कहता है, ‘सीढ़ियों से ऊपर जाएं तो आप फोटो मत लीजिएगा। कोई देखेगा तो मुसीबत हो जाएगी’।
यहां दुकानों से ज्यादा छज्जों की पहचान है। हर छत का कोई नंबर है। ऐसे ही एक खास नंबर की सीढ़ियों पर हम चढ़ते हैं। साथी इशारे से कहता है, रास्ता साफ है, मैं फोटो ले लूं। तंग-टूटी सीढ़ियों पर पैर जमाते हुए मैं जैसे-तैसे एकाध क्लिक करती हूं और ऊपर चढ़ जाती हूं। एक के बाद एक कई गलियारे पार होते हैं। कुछ कमरे बंद। कुछ के बाहर लड़कियां खड़ी हुईं। मुंडी नीचे झुकाए हुए मैं साथी लड़कों के पैर फॉलो करती हूं। आगे वो औरत मिलती है, जो मुझसे बात करेगी।
बेहद संकरी सीढियां, टूटी-फूटी दीवारें और ऊपर से सीलन। इन्हीं सीढ़ियों से होकर ग्राहक सेक्स वर्कर्स तक पहुंचते हैं।
सालों से यहां रहती निम्मो सामने से शूट किए जाने पर इनकार कर देती हैं। बच्चों के दोस्त पहचान लेंगे तो दिक्कत हो जाएगी- वे कहती हैं। मैं पीठ को उनका चेहरा बना देती हूं।
वे याद करती हैं- गरीब घर से हूं। जानने वाले ने दिल्ली में काम दिलाने का वादा किया। मैं छोटे शहर की थी। दिल्ली के नाम से डरी तो, लेकिन फिर छोटे भाई-बहनों की भूख के आगे हार गई। काम का वादा करने वाले ने यहां लाकर छोड़ दिया। गरीब थी, लेकिन घर खुला-खुला था। यहां सीलन से बजबजाता कमरा मेरा घर था, जिस पर बाहर से ताला पड़ा हुआ था।
मैं छटपटा रही थी। दरवाजा पीट रही थी। मुझे पैसे नहीं चाहिए। बड़ा शहर नहीं देखना। मैं भूखी रह लूंगी, लेकिन धंधा नहीं करूंगी। ज्यादा शोर होने पर कमरा खुला और मेरी जमकर पिटाई हुई। दिल्ली शहर में ये मेरा ‘वेलकम’ था।
दो रातों के बाद मेरा सौदा पक्का हो गया। मैं पंद्रह साल की थी। वो 40 या उससे ऊपर का- रुक-रुककर बोलती निम्मो का मुझे चेहरा नहीं दिखता, लेकिन उनकी सुबकती हुई पीठ मुझे समझ आती है।
वो मेरा ‘फर्स्ट टाइम’ था। जितने पैसे मिले, उतनी ही जबर्दस्ती भी हुई। जैसे बदमाश बच्चा प्लास्टिक की गुड़िया को तोड़ता-मरोड़ता है, उस आदमी ने मुझे पूरे दम से तोड़ा-मरोड़ा और चला गया। अब मैं जूठी हो चुकी थी। हां, जवान थी इसलिए बाद के काफी दिनों तक मेरी कीमत भी थोड़ी ज्यादा ही रही।
इतने लोग मिले। किसी से कभी मन नहीं जुड़ा?
निम्मो ऊबी हुई आवाज में जवाब देती हैं- मन लगा तो था, लेकिन थोड़े दिन बाद उसने आना छोड़ दिया। मेरे जाने-पहचाने शरीर में उसे अब कोई दिलचस्पी नहीं थी। सब ऐसे ही आते हैं। कोई बार-बार आता है, लेकिन हमेशा के लिए कोई नहीं रुकता। कोई नहीं कहता कि चलो, मेरे साथ घर बसाओ। शराब के नशे में प्यार की बातें करते हैं, लेकिन नशा उतरते ही हमें धंधेवाली कहकर लौट जाते हैं।
निम्मो कैमरे के सामने अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहती हैं। उनका चेहरा भले न दिख रहा हो, लेकिन उनका दर्द और उन पर हुए जुल्म को साफ देखा जा सकता है।
हमारा अगला चेहरा थीं- नीरजा। दुबली-पतली नीरजा लगातार गुटखा या खैनी जैसा कुछ खाती रहती हैं। वजह पूछती हूं तो हंसते हुए कहती हैं- जब प्रेग्नेंट थी तो कुछ अलग खाने की हुड़क लगती। अब मेरे पास तो पति है नहीं कि नखरे उठाएगा, भागकर सब लाएगा। तो यही खाने लगी। धीरे-धीरे आदत लग गई।
तांबई दांतों वाली नीरजा दुख की पोटली किनारे सरकाकर बात-बात पर हंसती हैं। गांव से दिल्ली और फिर जीबी रोड पहुंचने की उनकी कहानी भी गरीबी से शुरू होकर धोखे पर खत्म होती है। हम जब उनके कमरे पर पहुंचे, वे बरबटी की सब्जी काट रही थीं कि बच्चों को खिला-पिलाकर काम शुरू कर सकें। शाम की ‘शिफ्ट’ करने वाली नीरजा बताती हैं- रात को जागती हूं तो दिन चढ़े तक सोती रहती हूं। 2 बजे के बाद काम चालू होता है। गेस्ट को लाना- ले जाना! फिर आधी रात तक चलता रहता है।
मैं गौर करती हूं कि इनकी भाषा बाकी औरतों से थोड़ी अलग है। ये क्लाइंट को गेस्ट बोलती हैं और धंधे को काम।
छज्जे से बुलाने पर कभी गेस्ट आ जाते हैं, कभी नहीं आते। आते भी हैं तो उनके नाम पर लड़ाई होती है कि किसके हिस्से जाएंगे। कई बार कम उम्र की लड़की देखकर वो उसी के पास चले जाते हैं। कई बार व्यवहार पर काम होता है।
कम उम्र से लेकर बुजुर्ग महिलाएं तक यहां रहती हैं। जो एक बार इस पेशे में फंस गया, उसकी कोई रिहाई नहीं, ये बात वे बार-बार दोहराती हैं
शुरू में मैं भी छज्जे पर इंतजार करती थी। अब सीधे रोड पर जाकर ग्राहक लाने लगी। पहले-पहल शर्म आती थी कि राह चलते आदमी का हाथ कैसे पकड़ लूं, कैसे उसे अपने साथ चलने को कहूं! फिर आदत हो गई।
मजबूरी से बड़ी आदत कुछ नहीं- नीरजा कह रही हैं। साथ में माइक के तार को तेजी से तोड़-मरोड़ रही हैं। मैं टोकने को होती हूं, फिर खुद ही शर्मिंदा हो जाती हूं।
क्या आपने कभी किसी गेस्ट को आने से मना किया- मैं नीरजा से उन्हीं की भाषा में बात करती हूं। वे थोड़ा अटकते हुए याद करती हैं- शुरुआत में तो खूब जबर्दस्ती हुई। न मानने पर मारपीट अलग से होती। जो कोई आता, मनमानी करके निकल जाता। मैं रोती रहती। अब 16 साल से ज्यादा हो गए। गंदगी में सन कर मजबूत हो गई। कोई शराब के नशे में चूर होकर आए और गलत डिमांड करे तो उसे अपने कमरे में नहीं आने देती। कई बार गेस्ट कुछ ऐसा करते हैं, जो शरीर सह नहीं पाता। हम ऐसों को भी भगा देते हैं।
यहां हर कमरे पर नंबर दर्ज है। यहां सेक्स वर्कर्स रहती हैं। कई सेक्स वर्कर्स के बच्चे भी यहीं रहते हैं, जबकि कुछ अपने बच्चों को हॉस्टल में रखते हैं। खास करके लड़कियों को।
कंडोम के इस्तेमाल पर नीरजा कहती हैं, हमारे पास स्टॉक रहता है। इसके बिना हम काम नहीं करते। वे कह तो रही हैं, लेकिन एक नजर में कमरे को देख मुझे अंदाजा हो जाता है कि बित्ताभर कमरे और छोटे-से बिस्तर पर बिछी पुरानी-गंदली चादर से वे खुद को कितना सेफ रख पाती होंगी।
मैं बात करते हुए देखती हूं, उनके गले में काले मोतियों की हल्की-सी माला पड़ी है। कुछ-कुछ मंगलसूत्र जैसी। मेरे इशारे पर वे कहती हैं- नहीं, शादीशुदा नहीं हूं। हां, बच्चे जरूर हैं। बीच में एक गेस्ट आया था। कई साल रहा। जानती थी कि वो शादी नहीं करेगा, लेकिन मैं खुद को ब्याहता मानने लगी थी। फिर एक रोज वो चला गया।
‘कभी बच्चों की कोई खबर ली उसने?’ नीरजा इनकार में सिर हिलाती हैं।
जब आप काम करती हैं तो बच्चा क्या करता है?
‘उसे मोबाइल दे देती हूं, दूसरे कमरे में देखता रहता है। और वैसे भी वो सब जानते हैं कि उनकी मां क्या करती हैं। जब सब कुछ रोड पर हो रहा है तो बच्चे कैसे नहीं समझेंगे।’
बात करने पर पता लगा कि बेटियों वाली मांएं किसी तरह से अपनी बच्चियों को हॉस्टल में भेज देती हैं, ताकि किसी ग्राहक की नजर उन पर न पड़े। कइयों के बच्चे यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं। वो ‘घर’ नहीं लौटते। फोन पर ही मां से बातचीत होती है। नीरजा कहती हैं- मेरे दो ही सपने हैं- बेटा पढ़-लिखकर कुछ बन जाए। और मेरा अपना घर हो, जहां मैं रातभर सो सकूं।
कई कमरों से घिरे हुए दालान में तुलसी का पौधा लगा है, जिस पर लाल चुनरी बंधी है। नीरजा बताती हैं कि भले ही उनकी सुबह दोपहर में हो, लेकिन दिन की शुरुआत नहा-धोकर तुलसी की पूजा से ही होती है। ‘उनको हाथ जोड़ते हैं, तब काम शुरू करते हैं- जैसे आप लोग करते हैं।’ वे हंसते हुए कहती हैं और फिर सब्जी बघारने चली जाती हैं।
बस ऐसा ही हाल है जीबी रोड में रहने वालीं सेक्स वर्कर्स का भी। यह तस्वीर उनकी पूरी कहानी बयां कर रही है। कोई इस दलदल से बाहर निकलना चाहे तो भी रास्ता नहीं है।
सेक्स वर्कर्स के बच्चों के साथ काम कर रही लाइटअप संस्था की फाउंडर जूही शर्मा कई छूटी हुई बातें बताती हैं। वे बताती हैं कि कैसे इस सड़क की पहचान उन औरतों की पहचान पर हावी हो चुकी। बकौल जूही, जब ये औरतें हारी-बीमारी में अस्पताल जाती हैं, तो वहां पर आधार कार्ड पर जीबी रोड देखकर स्टाफ भी छेड़खानी करता है। कहीं भी आएं-जाएं, यहां का नर्क उनका पीछा नहीं छोड़ता।
पहले ये लोग 60 रुपए के लिए खुद को बेच दिया करती थीं। अब पैसे कुछ बढ़े, लेकिन वैसे ही, जैसे दाल-आटे के बढ़ते हैं। किसी ने इन्हें इंसान नहीं माना। कोई इस दलदल से बाहर निकलना चाहे तो भी रास्ता नहीं है। जैसे अगर ये किसी के घर खाना पकाने का काम खोजें तो कौन इन्हें रखेगा! कोई रख भी ले तो शक की सुई हर वक्त घूमती रहेगी। वहां भी ये सेफ नहीं।
जीबी रोड वो जगह है, जो पहले इनके पांव बांधती है, फिर धीरे-धीरे पूरे वजूद को जकड़ लेती है।
कितने साल तक की सेक्स वर्कर यहां काम करती हैं?
थोड़ा रुककर जूही बताती हैं- 15 साल की बच्ची भी है और 70 साल की औरत भी, जो बाल रंगकर ग्राहकों को बुलाती है। उसे ऑर्थराइटिस है। ब्लड प्रेशर है। औरतों वाली कई बीमारियां हैं। चलते सांस फूलती है, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता। सेक्स वर्कर को बूढ़ा होने की छूट नहीं! जैसे ही उसने खुद को बूढ़ा कहा, उसके मुंह से निवाला छीन लिया जाएगा।