अफगानिस्तान के शहराें पर तालिबान तेजी से कब्जा करता जा रहा है। वह अब काबुल से 11 किमी दूर है। बलों के सरेंडर करने से तालिबान को हेलीकॉप्टरों, अमेरिकी आपूर्ति वाले करोड़ों रुपए के उपकरण भी मिल गए हैं। तालिबान के तेजी से आगे बढ़ने से साफ हो गया है कि अमेरिका का अफगानिस्तान की सेना को मजबूत और युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार रहने वाला बल बनाने का प्रयास नाकाम हो गया। 20 साल में अफगान सुरक्षा बलों के लिए हथियारों, उपकरणों और ट्रेनिंग पर किया गया उसका 6.25 लाख करोड़ रुपए का निवेश आज बेकार साबित हो रहा है।
वैसे तो अमेरिका ने अफगानिस्तान से हटने की रणनीति ओबामा प्रशासन के दौर में ही बनी थी। तब कहा जा रहा था कि अफगानी सेना को ट्रेनिंग और साजो-सामान से लैस कर देश की सुरक्षा का जिम्मा उसी सौंप दिया जाएगा। ऐसा करने के बाद अमेरिका अपनी सेना को वापस बुला लेगा। हाल में अफगान सेना का पतन एक हफ्ते पहले नहीं, बल्कि राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा अप्रैल में सेना को 11 सितंबर तक वापस बुलाने के ऐलान के साथ शुरू हुआ।
तालिबान ने मई से शुरू किया अफगानिस्तान पर कब्जा
तालिबान ने मई से ही कब्जा करना शुरू कर दिया था। उसे पता था कि हवाई मार्ग से खाने की आपूर्ति संभव नहीं है। इसलिए उसने सड़क मार्ग से होने वाली सेना के खाने और अन्य रसद रोककर उस पर कब्जा शुरू कर दिया। खाने की कमी ने दूरदराज की ग्रामीण चौकियों पर तैनात हथियार बंद बलों और पुलिवालों को सरेंडर करने पर मजबूर कर दिया। इससे चौकी पर मौजूद गोला-बारूद और अन्य युद्धक साजो-सामान तालिबान को मिलने लगा। इनका इस्तेमाल अफगानी सैनिकों पर ही होने लगा। एक वक्त अफगान सेना में जवानों की संख्या 3 लाख से ज्यादा लाख थी। आज ये घटकर 50 हजार से भी कम बची।
तालिबान के हिसाब से तैयारी कर रहा चीन
चीन को भी अफगानिस्तान में तालिबानी शासन आता दिख रहा है। वह इस स्थिति के हिसाब से आगे बढ़ रहा है। यह संकेत पिछले महीने चीन के विदेश मंत्री वांग यी की तालिबान अधिकारी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने की तस्वीरें सामने आने मिल रहा है। कहा जा रहा है कि चीन ने उसी वक्त से तेजी से बदलते संभावित परिदृश्य में तालिबान को मान्यता देने का मन बना लिया है।
नियूतांकिन छद्म नाम से लिखने वाले चीन की विदेश नीति के जानकार के मुताबिक, अमेरिका या रूस के उलट चीन को यह फायदा है कि उसका तालिबान से मुकाबला नहीं हुआ। जब तालिबान आखिरी बार 1996-2001 के बीच सत्ता में था, तब चीन ने अफगानिस्तान से संबंधों को पहले ही खत्म कर दिया था। 1993 में गृहयुद्ध के बाद राजनयिकों को वापस ले लिया था।
पाकिस्तान ने तालिबान के दबाव में सीमा खोली
तालिबान द्वारा सीमा बंद किए जाने के बाद अफगानिस्तानी नागरिक सीमा पार कर पाकिस्तान जाने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। इन्हें शुक्रवार को पाकिस्तानी बलों ने रोकने की कोशिश की, क्योंकि उसने 6 अगस्त को वीसा फ्री एंट्री पर रोक लगा दी थी। रोके जाने पर वे पाकिस्तानी बलों से उलझ गए। घटना चमन स्पिन बोल्दक की सीमा पर चौकी की है। इस संघर्ष में एक 56 साल के व्यक्ति की मौत हो गई। झड़प के हालात बनते देख सेना बढ़ा दी गई है। उधर, तालिबान मांग कर रहा है कि अफगानी नागरिकों को पाकिस्तान सीमा पार करने दे। वह चाहे तो उन्हें एक शरणार्थी कार्ड जारी कर दे। इससे दबाव में आए पाकिस्तान ने शनिवार को यह पोस्ट अफगानिस्तानी नागरिकों के दोबारा खोल दी।
अप्रैल तक 20% इलाके में भी नहीं था तालिबान
13 अप्रैल– अमेरिका ने अफगान छोड़ने का ऐलान किया। उसके बाद तालिबान ने कब्जा करना शुरू किया।
16 जून- देश के एक चौथाई हिस्से तक में मौजूद तालिबान ने कार्रवाई तेज करते हुए हमले बढ़ा दिए।
20 जुलाई- तालिबान दूसरे पखवाड़े में आधा देश कब्जे में लिया। चारों तरफ से उसने पकड़ बना ली।
12 अगस्त– अफगान सेना के हाथ से कंधार निकल गया। अब काबुल को बचाने की जद्दोजहद चल रही है।
दिखने लगा डर: लोग खाने का सामान जुटा रहे
अफगानिस्तानी नागरिक मानने लगे हैं कि अब तालिबान का देश पर शासन होने वाला है। लोगों ने भी उसके कायदों के अनुरूप खुद को ढालने की तैयारी शुरू कर दी है। लोग घरों में दाल, चावल, सब्जियां समेत खाने का सामान जमा करने लगे हैं। कई ने बुर्का खरीदना शुरू कर दिया है।
कुछ तो बचाव के लिए ईंट-पत्थर भी जुटा रहे हैं। कुछ लोगों ने शहर में अपने दूसरे रिश्तेदारों के साथ रहने के लिए घर छोड़ दिया है, ताकि बमबारी से बच सकें। कुछ लोग अपने घरों के दरवाजों को मबजूत करवा रहे हैं, ताकि धक्के या बंदूक की बटों से न टूटें। कुछ ने तो अपने तलघर को लूडो खेलने के हिसाब से तैयार करना शुरू कर दिया है।
कंधार में पश्तूनों का वर्चस्व
तालिबान के आगे बढ़ने के बारे में जानने के लिए लोग फेसबुक पन्नों को खंगाल रहे हैं। कंधार में उसी जातीय पश्तून समूह का वर्चस्व है, जिससे तालिबान का उदय हुआ था। पढ़ने-लिखने के शौकीन कंधार के सेवानिवृत्त शिक्षक अब्दुल ने तय किया है कि वह अपनी किताबों को छुपा देंगे। उन्हें डर है कि तालिबानी सत्ता में आते ही बदला लेना शुरू कर देंगे।
कंधार में लाइब्रेरी नहीं है। इस कारण अब्दुल उस बुक क्लब के सदस्य हैं, जहां लोग एक-दूसरी की किताबें अदल-बदल सकते हैं। उन्होंने कहा कि मेरी रातों की नींद गायब है। सरकार हमारे देश को बचाने में नाकाम रही। मैं नहीं चाहता कि तालिबान कंधार में आकर मेरे घर की तलाशी करे। मेरा भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि मेरे यहां छापा पड़ता है या नहीं। ऐसा लगता है कि इस शहर में मौत का खेल खेला जाएगा।