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विधानसभा चुनाव :‘भद्रो जन’ अपने को बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमान बोलने से नहीं चूक रहे

विधानसभा चुनाव में तरह-तरह का खेल:‘भद्रो जन’ अपने को बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमान बोलने से नहीं चूक रहेमुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पंचलाइन- ‘खेला होबे’, यानी ‘खेल होगा’, शाब्दिक भाव में, आगे के सीन-सिचुएशन का अहसास कराती है। किंतु, उत्कृष्ट खेलप्रेमी बंगाल में ‘खेल’ तो बुलंद भाव में खेला जा रहा है। खेल पर खेल है। खेल में खेल है। तरह-तरह का खेल है।

यहां के ‘चुनावी खेल’ को पार्टियां या दो सरकारें ही बहुत लंगड़ीमार मोड में नहीं खेल रहीं, बल्कि सीबीआई, इनकम टैक्स डिपार्टमेंट, ईडी, चुनाव आयोग और कोर्ट तक को भी, इस खेल का खिलाड़ी बता, बना दिया गया है। इन सबका अपना- अपना खेल है।

बेशक, इनके खेलने की पूरी गुंजाइश ममता बनर्जी की सरकार ने अपने खेल से बनाई। और जब इन्होंने खेलना शुरू किया, तो पब्लिक को भ्रष्टाचार के गम्भीर मोर्चे पर खुद को प्रताड़ित बताने की मासूमियत का खेल खेला जा रहा है। इस खेल में, इस एक और खेल से कामयाबी मिली है कि ‘भगवाकरण के बाद आदमी, तमाम दुर्गुणों से फौरन मुक्त हो जाता है।’

एक खेल, मां काली के इस क्षेत्र में भगवान श्रीराम को स्थापित करने का है, तो दूसरा खेल ‘जय श्रीराम बनाम चंडी पाठ’ का। हिंदुत्व अपने पूरे खेल में है। इसके फायदे या फिर इसकी काट के लिए किसी भी खेल को नहीं छोड़ा जा रहा। ढेर सारे खेल हैं। यह खेल भी हो गया कि भगवान राम और मां दुर्गा में कौन बड़ा है? ममता सबको बता रहीं हैं कि ‘राम ने रावण से लड़ाई के पहले शक्ति (मां दुर्गा) की आराधना की थी?’ यह बोलने के बाद सबसे पूछती हैं-‘… तो बड़ा कौन हुआ- राम या दुर्गा?’ फिर, कहती हैं-‘काली, दुर्गा का ही रूप हैं।’ धर्म का ऐसा बहुआयामी व बहुस्तरीय खेल शायद ही कहीं खेला गया है।

जाति का खेल है। ‘भद्रो जन’ (भद्र मनुष्य), अपने को बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमान बोलने से नहीं चूक रहे। आम बंगालियों के लिए ‘भद्रो जन’ का इस्तेमाल होता है। मौके या आजमाइश के नतीजों के हिसाब से खेल बदल भी रहा है। एनआरसी का खेल खिलाफ में जाता दिखा, तो भाजपाइयों ने इसे मटिया सा दिया। बदले में आरक्षण का खेल शुरू हो गया।

ध्रुवीकरण के खेल को, तुष्टिकरण का खेल कामयाब नहीं होने दे रहा। इन दोनों खेलों को नए-नए अंदाज में आजमाया जा रहा है। कुछ खेल, अपने फायदे में अपने से ही खेल लिया जा रहा। ममता ने ‘गुजरात का खेल’ बनाया और इसके जवाब में ‘बंगाल की बेटी’ का खेल खेल दिया। मां, माटी, मानुष का खेल है; लोकल सेंटीमेंट का खेल है। ‘सोनार बंगला’ में ‘कोबरा’ का खेल है।

कॉमरेडों के सुर्ख लाल रंग को सफेद-नीले रंग में रंग देने का खेल बखूबी सफल रहा, तो अब सफेद-नीले पर भगवा रंग को चटक कर देने का खेल है। दीदी के व्हील चेयर का खेल है। भाजपा की शहादत सूची का खेल है। बमबाजी, चाकूबाजी, टोलाबाजी, सिंडिकेट, क्लब…, खेलों की बड़ी लंबी फेहरिस्त है। पब्लिक क्या, कोई भी अकबका जाएगा जी।

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