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भगवा-सफेद पहनावे वाले संतों के बीच चटख रंगों वाला किन्नर अखाड़ा सबसे बड़ा आकर्षण

हरिद्वार कुंभ में पेशवाई:भगवा-सफेद पहनावे वाले संतों के बीच चटख रंगों वाला किन्नर अखाड़ा सबसे बड़ा आकर्षण; भस्म लगाए नागा साधुओं की आंखों पर गॉगल और कानों में ब्लूटूथहरिद्वार में पांडेयवाला के रहने वाले अनूप कुमार पूरी श्रद्धा और उत्सुकता से पेशवाई का इंतजार कर रहे हैं। हाथ में फूलों की थाल लिए उनका पूरा परिवार भी संतों के स्वागत के लिए घर के बाहर आ गया है। वे कहते हैं कि ’12 साल में एक बार ये मौका आता है, जब कुंभ हमारे शहर में होता है। कुंभ की असल शुरुआत पेशवाई से ही होती है।’ 11 मार्च को महा शिवरात्रि पर हरिद्वार कुंभ का पहला शाही स्नान है। मेला क्षेत्र में श्रद्धालुओं की भीड़ अब धीरे-धीरे बढ़ने लगी है। पेशवाई का दौर पिछले कई दिनों से जारी है।

पेशवाई का मतलब है कि साधु-संतों का कुंभ नगरी में प्रवेश। बारी-बारी से अखाड़े अपनी-अपनी पेशवाई निकालते हुए कुंभ नगरी में प्रवेश करते हैं और इसे ही कुंभ मेले की शुरुआत माना जाता है। अखाड़ों के ‘रमता पंच’ की पेशवाई में अहम भूमिका रहती है। ‘रमता पंच’ यानी वो साधु जो बारहों महीने भ्रमण पर रहते हैं।अखाड़ों की शोभायात्रा में हमने जानना चाहा कि इसे पेशवाई क्यों कहा जाता है? हमें दो अलग-अलग जवाब मिलते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि पेशवाई शब्द हिंदी के ‘प्रवेश’ से निकला है। इन लोगों के मुताबिक, संतों के नगर में प्रवेश करने को पहले प्रवेशाई कहा जाता था, लेकिन समय के साथ यह लोगों में पेशवाई के तौर पर प्रचलित हो गया। दूसरी तरफ कई संत ‘पेशवाई’ मराठा साम्राज्य से जोड़ते हैं। इनका मानना है कि जैसे वहां प्रमुखों को पेशवा कहा जाता था और उनकी भव्य पेशवाई होती थी, वैसी ही पेशवाई कुंभ में साधुओं की होती है।

पंचदशनाम जूना अखाड़ा के महंत रविंद्रानंद सरस्वती कहते हैं कि ‘पेशवाई संतों की भव्य शोभायात्रा को कहते हैं। ऐसी शोभायात्रा राजा-महाराजाओं की बहुत जगह होती हैं, लेकिन साधुओं और नागाओं की शोभायात्रा सिर्फ कुंभ में होती है।’ शोभायात्रा की परंपरा के बारे में वे कहते हैं कि ‘देश में विधर्मियों और आक्रांताओं के चलते सनातन धर्म पर जब भी संकट आया तो साधु-संतों ने न सिर्फ शास्त्र से बल्कि शस्त्र से भी उनका मुकाबला किया। इसी कारण राजाओं ने कुंभ के दौरान साधु-संतों के भव्य स्वागत की परंपरा शुरू की जो आज भी चल रही है।’
यह परंपरा आज भी बरकरार तो है, लेकिन इसका स्वरूप अब पहले से बदल चुका है। पहले राजा-महाराजा साधुओं के स्वागत और पेशवाई के लिए अपना पूरा लाव-लश्कर लगाते थे। उनके स्वागत में ढोल-नगाड़े बजाए जाते थे और उन्हें शाही हाथी-घोड़ों में बैठा कर कुंभ नगरी का भ्रमण करवाया जाता था, लेकिन अब ये सब इंतजाम अखाड़ों को खुद ही करने होते हैं। हरिद्वार के स्थानीय लोग पेशवाई का स्वागत आज भी पूरे उत्साह से वैसे ही कर रहे हैं, जैसे सदियों से होता आ रहा है। शहर के जिन भी इलाकों से पेशवाई निकल रही है, वहां स्थानीय लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। जिन रास्तों से संतों की शोभायात्रा निकलती है, वे फूलों से पटे नजर आते हैं।

पेशवाई के दौरान और उसके बाद भी कुंभ मेले का सबसे बड़ा आकर्षण किन्नर अखाड़ा है। हरिद्वार के कुंभ में किन्नर अखाड़ा पहली बार आया है। हालांकि प्रयाग और उज्जैन में हुए कुंभ में किन्नर अखाड़े को लोग शामिल हो चुके हैं। जितना उत्साह किन्नर अखाड़े से जुड़े लोगों में हरिद्वार कुंभ में शामिल होने का है, उतना ही उत्साह यहां आने वाले श्रद्धालुओं में किन्नर अखाड़े को लेकर भी है। उनका आशीर्वाद पाने और उनके साथ एक सेल्फी लेने के लिए लोग घंटों इंतजार कर रहे हैं।किन्नर अखाड़े से जुडे़ लोगों का पहनावा बाकी साधुओं से अलग नजर आता है। सभी अखाड़ों के साधु-संत साधारण गेरुआ या सफेद कपड़ों में दिखते हैं। पर किन्नर अखाड़े में चटक डिजाइनर कपड़े, भारी आभूषण, शरीर पर बने बड़े-बड़े टैटू और भारी मेक-अप वाले चेहरे नजर आते हैं।

किन्नर अखाड़े को काफी विरोध के बाद मान्यता मिली है। हरिद्वार में पेशवाई के दौरान किन्नर अखाड़ा, जूना अखाड़े के साधुओं के साथ मौजूद रहा। शाही स्नान के लिए भी जूना अखाड़े ने किन्नर अखाड़े को अपने साथ जगह दी है। किन्नर अखाड़े की आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी बताती हैं कि ‘हमारे लिए कुंभ में जगह पाने का संघर्ष काफी कठिन रहा है। पहले कई लोगों ने हम पर कटाक्ष किए, लेकिन अब मनमुटाव दूर कर लिए गए हैं। जूना अखाड़े के हरी गिरि जी की वजह से हमारे लिए कई चीजें आसान हुई हैं।’

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