बालिका दिवस विशेष:विनेश फोगाट की मां को कैंसर था, पशु पालकर बेटी को ओलिंपियन बनाया; मां की मदद से नेशनल फुटबॉलर बनीं आरतीबेटियों को बचाया है तो मां ने, बाकी सबने अपने हिस्से की मदद दी है। जब मां चाह ले तो बेटी का कोई बुरा कैसे कर सकता है। बल्कि बेटियां मां का हाथ मिलते ही आसमान को छूने लगती हैं। हम ऐसी ही दो माताओं की कहानी लेकर आए हैं, जिस समय बेटियों को खेलना तो दूर अधिक पढ़ाने पर भी ऐतराज रहता था। इन दोनों माताओं ने खुद तकलीफ सहन करते हुए बेटियों को खेलने के लिए भेजा और हर सुविधा मुहैया करवाई। आज ये दोनों बेटियां खेल के क्षेत्र में पहचान बनाकर नाम रोशन कर रही हैं।
ओलिंपियन विनेश की मां प्रेमलता ने बयां की लंबे संघर्ष की दास्तां
2003 में पति राजपाल फौगाट की मौत हो गई। उस समय विनेश फौगाट महज 9 साल की थी। कुछ दिनों बाद पता चला कि मुझे दूसरे स्टेज का कैंसर है। 2004 में जोधपुर में ऑपरेशन करवाया। बच्चों के लिए मैंने कैंसर से लड़ाई लड़ी। खेती के लिए केवल 1 एकड़ जमीन थी। इससे काम नहीं चला तो तीन-चार दुधारू पशु पालकर दोनों बच्चों विनेश और हरिवंद्र को पढ़ाया। समाज के खिलाफ जाकर उन्हें खेलने की आजादी दी।
गांव की महिलाओं ने बेटी को खेलों में भेजने पर भली बुरी बातें भी कही, जिससे शर्मिंदगी महसूस होती लेकिन बेटी पर विश्वास था कि यही एक दिन मेरा नाम रोशन करेगी। छह साल की उम्र में ही विनेश ने चचेरे भाई-बहनों के साथ खेलना शुरू किया था। उसे कुश्ती ज्यादा पसंद नहीं थी, लेकिन ताऊ महाबीर फौगाट की डांट से बचने के लिए रोज ग्राउंड पर जाती थी।
ताऊ ने ही गुरु की भी भूमिका निभाई। कई बार खेलों में भाग लेने के लिए कहीं बाहर जाना होता तो विनेश तैयार हो जाती। पैसे नहीं होने पर उनके ताऊ ही खर्च उठाते या फिर जान-पहचान के लोगों से सहायता लेनी पड़ती। स्कूल, जिले के बाद स्टेट अौर 2012 में विनेश ने पहला नेशनल मैच खेला, जिसमें उसने गोल्ड हासिल किया।फुटबॉलर आरती की मां रजनी ने सुनाई कठिन जिंदगी की कहानी
बात 10 साल पहले की है। पति ने मुझे घर छोड़ने का फरमान इसलिए सुना दिया था, क्योंकि मैं तीन बेटियों की मां थी। तब एक बच्ची गोद में थी। एक तीन और एक आठ साल की थी। पति ने कहा था कुल का दीपक ना देने की वजह से मुझे घर में रहने का हक ही नहीं। तब ससुराल छोड़ दी, भले ही आने वाले कल के बारे में कुछ पता न था।
तीनों बेटियों के मासूम चेहरे हिम्मत दे रहे थे। भाइयों ने सहारा दिया। मगर भाइयों पर बोझ बनना स्वीकार नहीं था। मेहनत-मजदूरी की। सुबह 8 बजे घर से निकलती और 5 बजे तक लोगों के खेतों में काम करती। फिर बच्चियों को गांव के स्कूल में भेजना शुरू किया।
बड़ी बेटी आरती ने जब स्कूल जाना शुरू किया तो उसे फुटबॉल खेलने में रुचि होने लगी। इसके बाद कोच सतविंद्र कौर और नरेंद्र जांगड़ा आगे आए और आरती का अभ्यास शुरू करा दिया। पढ़ाई व खेल का खर्च उठाने के लिए एक ही दिन में दो से तीन जगह काम करना शुरू किया।
आरती अब तक 5 बार नेशनल खेल चुकी है। स्टेट लेवल पर 12 बार शानदार प्रदर्शन कर चुकी है। छोटी बेटी भी फुटबॉल में रुचि दिखा रही है। मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी यह है कि मुझे गांव में आरती की मां के नाम से जाना जाता है। बेटे भले ही भाग्य से होते हों, पर बेटियां सौभाग्य होती हैं।