मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक ।।
भावार्थ: मन के मत में न चलो, क्योंकि मन के अनेको मत हैं। जो मन को सदैव अपने अधीन रखता है, वह साधु कोई विरला ही होता है।
मन के मारे बन गये, बन तजि बस्ती माहिं
कहैं कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं ।।
भावार्थ: मन की चंचलता को रोकने के लिए वन में गये, वहाँ जब मन शांत नहीं हुआ तो फिर से बस्ती में आ गये। गुर कबीर जी कहते हैं कि जब तक मन शांत नहीं
होयेगा, तब तक तुम क्या आत्म – कल्याण करोगे।
कबीर मनहिं गयन्द है, अंकुश दै दै राखु
विष की बेली परिहारो, अमृत का फल चाखू ।।
भावार्थ: मन मस्ताना हाथी है, इसे ज्ञान का अंकुश दे – देकर अपने वश में रखो, और विषय-विष-लता को त्यागकर स्वरूप – ज्ञानामृत का शान्ति फल चखो।
मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय
विष कि क्यारी बोय के, लुनता क्यों पछिताय ।।
भावार्थ: जी चाहता है कि मन को पटक कर ऐसा मारूँ, कि वह चकनाचूर हों जाये। विष की क्यारी बोकर, अब उसे भोगने में क्यों पश्चाताप करता है?